माँ विन्ध्यावासिनी के चरणों में अद्वैत का मुडंन



विन्ध्यवासिनी मतलब जो विन्ध्य में रहती हो अर्थात जिसका निवास विन्ध्य में हो। लोकोक्ति के अनुसार सती के मृत शरीर को लेकर जब भगवान शंकर उद्वेलित भाव में विचरण कर रहे थे तो जहाँ जहाँ सती के अंग गिरे वो इक्यावन स्थान देवी के शक्तिपीठ के रूप में पूजित हुये। फिर सवाल उठता है कि जब अंग गिरने पर सारे शक्तिपीठ बने और उनके नाम भी उस अंग से मिलते जुलते पड़े तो विन्ध्यवासिनी देवी का नाम उस जगह पर निवास करने से क्यों पड़ा जबकि अंग का कोई निवास स्थान तो होता नहीं है। इस सवाल का जवाब भी उस प्रचलित लोकोक्ति में है जिसके अनुसार जब देवकी की आंठवी संतान के तौर पर भगवान कृष्ण ने जन्म लिया तो वासुदेव भगवान कृष्ण को गोकुल छोड़ आये और वहाँ से यशोदा की पुत्री को वापस कारावास लेकर आ गये। कंस ने जब माँ दुर्गा की अवतार कन्या का वध करना चाहा तो वह अन्तरधयान हो गयी ऐसा माना जाता है उसके पश्चात माता ने विन्ध्य के इसी क्षेत्र को अपना निवास बना लिया। 

विन्ध्य क्षेत्र मूल रूप से नर्मदा नदी के उत्तर में फैली छोटी छोटी पर्वत श्रृंखला को कहा जाता है। भौगोलिक रूप से देखे तो विन्ध्य कोई एक पर्वत श्रृंखला नहीं है बल्कि अलग अलग पर्वत श्रृंखलाओं का समूह है। विन्ध्यवासिनी देवी का वास इस पर्वत श्रृंखला के बिल्कुल उत्तर में मिरजापुर जिले में है। 

परिवार की विन्ध्यवासिनी देवी में आस्था के कारण सारे बच्चों का मुडंन संस्कार वही होने का रिवाज है। अद्वैत इस वर्ष दीवाली के दिन एक साल का हो रहा था तो मुडंन दीवाली यानि 7 नंवबर के पहले होना था, क्योंकि मुडंन विषम वर्ष में ही होने का रिवाज है। लगभग 2-3 महीने पहले ही पिताजी ने 4 नंवबर की तारीख रविवार और उसके बाद की दीवाली की छुट्टी देखते हुए तय कर रखी थी। मैं दीवाली के ठीक पहले इन्दौर में था तो सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला के क्षेत्र से निकल कर, पूरे विन्ध्य क्षेत्र को पारकर एक दिन पहले शनिवार को घर पहुंचा। 

अगले दिन सुबह नहा धो तैयार होकर हम लोग 👫👬👭 कुल जमा 25 लोग विन्ध्याचल को निकल पड़े। बस कमी इतनी रही कि कुछ दिन पहले आंख का आपरेशन कराने के कारण पिताजी को घर पर ही रुकना पड़ा। ठीक 2 घंटे 11:15 बजे हम मंदिर पहुँच गये। जो लोग विन्ध्याचल मंदिर गये होंगे उन्हें पता होगा यहाँ अव्यवस्था और पंडों का आंतक है जिसमें समय के साथ थोड़ा बहुत सुधार हुआ है फिर भी व्यवस्था अभी भी लचर ही है। वैसे अकेले या मित्रों के साथ दर्शन करते वक्त कभी किसी पंडे की सेवा न ली पर 25 लोगों की बटालियन साथ होने पर ये जरूरी प्रतीत जान पड़ी। खैर रास्ते में ही एक मित्र के परिचित पुजारी से बात कर ली। 12 बजे डेढ़ बजे मंदिर बंद होना था तो पंडित जी तुंरत दर्शन के लिये चलने को कहा, पर मैंने पहले मुडंन कराने की बात कहकर उनको मंदिर खुलने पर ही दर्शन तक रुकने को कहा। 

मंदिर के मुख्य द्धार के पास ही प्रसाद की बड़ी दुकान पर हम रुके, बड़ी इसलिये ताकि 25 लोगों की पलटन बिना किसी दिक्कत वहाँ बैठ सके।  अब जब दर्शन 1: 30 बजे के बाद करना था तो समय की उपलब्धता के चलते सबको चयास लगने लगी। वैसे 5 अलग अलग गाड़ियों में होने के चलते रास्ते में हम  कहीं चाय नाश्ते के लिए नहीं रुके थे। बड़े भईया पास की दुकान पर चाय के लिये बोलकर आये, फिर 15-20 मिनट बाद भविष्य के मोदी ने हमें लालू छाप कुल्हड़ चाय पिलाई। खैर फिर हम बढ़े उस काम के लिये जिसके लिये सब माँ के दरबार में आये थे, यानि अद्वैत का मुडंन। 

सबसे पहले नाऊ तय हुआ जो 2100 की हवा हवाई दाम से गिरते गिराते मनरेगा के दो दिन की मजदूरी से अधिक 500 रुपये पर तैयार हुआ। मुडंन स्थल पर पहुंचने पर फिर बाजा बजाने वालों ने घेर लिया, दाम कुछ ज्यादा ही बताने पर भईया ने उन्हें मना कर दिया। फिर मुडंन शुरू होने के वो ठीक बगल बाजे लेकर बैठ गये और आखिर में 200 रुपये दस मिनट बाजा बजाकर ले गये। इस बीच मुडंन के दौरान महिलाओं ने नाऊ को नेछु के तौर पर 20-30 रुपये चढ़ाये तो नाऊ ने कम बताते हुए पैसे लेने से मना कर दिया। खैर आखिर में 500 रुपये लेने के अलावा नेछु के पैसे भी लेकर चलता बना। कुल जमापूंजी अनुभव ये रहा कि नाऊ मौके को पंडों के मुकाबले ज्यादा मुनाफा कमाने वाला रहा, क्योंकि जितने रुपये वो पंद्रह मिनट कमा गया उतने रुपये पंडों को देने में लोग सत्यनारायण कथा सुनी लेते हैं। 

मुडंन के पश्चात हम वापस प्रसाद की दुकान पर गये और प्रसाद लेकर मंदिर दर्शन के लिये गये। विन्ध्यवासिनी मंदिर का गर्भगृह बेहद छोटा है जो यहाँ के पंडों ने अधिक कमाई के लालच में बड़ा नहीं होने देना चाहते। वो ये नहीं समझना चाहते कि अगर मंदिर को श्रद्धालुओं के लिये सुविधायुक्त बनाया जाये तो श्रद्धालुओं की संख्या में भारी इजाफा होगा, पर कूपमंडूक शब्द ऐसे ही लोगों के लिये बना है। 

दर्शन के बाद सबके पेट में चूहे दौड़ रहे थे पर सबका इंतजार थोड़ा और बढ़ गया जब मैंने बताया कि खाना तो दस किमी दूर मिरजापुर में खाना है। खाना मिरजापुर में एक मित्र के रेस्टोरेंट में हुआ और साथ ही लगभग डेढ़ साल बाद मुलाकात। अंततः अद्वैत के बाल छोड़कर हम प्रयागराज को वापस रसीद हुये। 
जय विन्ध्यवासिनी मईया

Comments

  1. अद्वैत को अनेक शुभाशीष।
    पारिवारिक परंपरा को जीवंत रखने के लिए और साथ ही मुंडन संस्कार का वृतांत सहज एवं सरल अन्दाज़ में जनमानस तक पहुँचाने के लिए श्री आंनद वर्द्धन जी भी बधाई के पात्र हैं।

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