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Showing posts from October, 2018

कोयले की हवा वाला शहर

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दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण और सांस न ले सकने वाली हवा की चर्चा लगभग हर दो चार महीने में देशभर में टीवी पेपर से लेकर आम जनता के बीच हो ही जाती है, विशेष रूप से सर्दियों के समय हरियाणा के किसानों द्धारा खेतों में पुवाल जलाने के चलते दिल्ली हरियाणा सरकार में वार्षिक झाय झाय जरूर हो जाती है। वैसे भी शुद्ध हवा, शुद्ध पानी किसी भी सरकार के एजेंडे में ही नहीं है, और हो भी क्यों इस देश की जनता को शुद्ध हवा और शुद्ध पानी न मिलने पर सरकार से कोई शिकायत भी नहीं। अपने अपने घर में आरओ लगाकर शुद्ध पानी और एयर पयूरिफायर लगाकर हम संतुष्ट हो जाते हैं। कितना अजीब है जो चीज प्रकृति ने बिल्कुल मुफ्त में दी उसे भी बाजार हमें खरीदने पर मजबूर कर रहा है और आम आदमी बाजार को मजबूत करके खुश हो रहा।  राजधानी होने की वजह से कम से कम दिल्ली के प्रदूषण की चर्चा तो होती है पर दिल्ली से हजार किमी दूर कोरबा की हवा में फैले प्रदूषण की चर्चा करने की जरूरत भी देश को महसूस नहीं होती। कोरबा जहाँ भारत ही नहीं बल्कि एशिया की सबसे बड़ी कोयला खदान है, कोरबा जो भारत की पावर ( बिजली वाला) कैपिटल कहलाता है। कोरबा ज

अकाल की मार से बना शाही महल

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बात 1920 की है मारवाड़ राज्य में लगातार तीन साल इंद्र देव ने अपनी वक्र दृष्टि बनाये रखी, वैसे भी मारवाड़ राज्य का बड़ा हिस्सा रेगिस्तान था, सो लगातार तीन साल के सूखे की वजह से क्षेत्र में भंयकर अकाल फैल गया। अकाल के काल से त्राहि त्राहि कर रही जनता ने इससे उबरने के लिये उस समय मारवाड़ राज्य के राजा रहे उम्मेद सिंह से मदद मांगी। अब उम्मेद सिंह कोई भगवान कृष्ण तो थे नहीं जो इंद्र का टेटुआ पकड़ते और कहते पानी बरसा। वैसे भी इंद्र देवराज की उपाधि लेने के बावजूद देवताओं की लिस्ट में सबसे निर्लज्ज और निरीह पता पड़ते हैं। उम्मेद सिंह अपन जैसे ही सामान्य व्यक्ति थे जो किस्मत से राठौर राजघराने में पैदा हो गये थे।  उस समय भारत में अंग्रेजों की हुकूमत थी पर जिन राजाओं ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली, उन्हें अंग्रेजों ने उस क्षेत्र का टैक्स कलेक्शन एजेंट बनाकर राजपाट चलाने का लाईसेंस दे दिया। मारवाड़ राज्य के शासक राठौर भी ऐसे ही थे जिन्हें आप आजादी के पहले के कांग्रेसी नेताओं की तरह अकलमंद कह सकते हैं, जिन्होंने क्रांतिकारी बनकर शहीद होने की बजाय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बनकर हौल

प्रयागराज

को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ।  कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ। अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा। कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई। श्री मुख तीरथराज बड़ाई। करि प्रनामु देखत बन बागा। कहत महातम अति अनुरागा। यह सुधि पाइ प्रयाग निवासी। बटु तापस मुनि सिद्ध उदासी। भरद्वाज आश्रम सब आए। देखन दसरथ सुअन सुहाए। ऊपर तीनों गोस्वामी तुलसीदास द्धारा लिखित रामचरितमानस की चौपाई हैं, जो मूलतः वाल्मीकि रामायण से प्रेरित हैं। रामायण मैंने न देखी न पढ़ी पर रामचरितमानस का पाठ घर के माहौल के चलते कई बार किया है। इन तीनों चौपाइयों में मेरे शहर इलाहाबाद के बारे में लिखा है पर हर जगह उसका नाम प्रयाग (तीर्थराज) ही मिलेगा, इलाहाबाद का कही जिक्र तक नहीं। गोस्वामी तुलसीदास का जन्म 1511 में हुआ था और जिस मुगल बादशाह अकबर के इलाही धर्म के चलते शहर का नाम इलाहाबाद पड़ा उनका जन्म 1542 में हुआ था। इलाहाबाद से मेरा भी बड़ा जुड़ाव रहा है फिर भी प्रयागराज होने पर खुशी हो रही क्योंकि ये बदलाव नहीं बल्कि सुधार है। बाकी ये तर्क देने वाले कि जब कुछ काम नहीं करना तो नाम बदल रहे बस इतना जान ले कि प्रयागराज में डेढ़

देवपहरी जलप्रपात

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कोरबा की सतरंगा झील जैसी खूबसूरत जगह देखने के बाद मैं और विनय वहाँ से अगली खूबसूरत जगह देखने निकल गये। सतरंगा झील से करीब पंद्रह किलोमीटर के बाद पहाड़ी शुरू हो गयी। पहाड़ी की घुमावदार सड़क और दोनों तरफ दूर तक फैली हरियाली। धूप होने के बावजूद पहाड़ी और हरियाली के चलते चेहरे पर ठंडी ठंडी हवा टकरा रही थी। पहाड़ी पर बाइक घुमाने का मजा हम जैसे समतल में रहने वालों को अलग ही लगता है। खैर घूमते घामते हम देवपहरी के नजदीक पहुँच गये। बीस पचीस किलोमीटर के रास्ते में चाय की भी सिर्फ एक दुकान थी।  मेन रोड के बाद लोगों ने पूछने पर एक कच्चे रास्ते पर जाने के लिये कहा। बाहर से लोग भले न आये पर देवपहरी, कोरबा के लोगों के लिये सबसे हैपेनिंग जगह है। उसके बावजूद वहाँ तक सड़क तक का न होना प्रशासन के नकारेपन को दिखाता है। खैर इतनी बेहतरीन जगह होने के बावजूद बाहर के पर्यटक न आने का बड़ा कारण यही सब होगा।  देवपहरी जलप्रपात पर सतरंगा की तरह हम अकेले न थे बल्कि ठीक ठाक पर्यटक दिखाई दे रहे थे। बारिश का मौसम कुछ दिन पहले ही खत्म हुआ है सो ऐसी जगहों पर पानी कब अचानक कम अधिक हो जाये इसका तो भगवान ही

यहाँ आकर उदयपुर भूल जायेंगे

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पिताजी की घूमने और साथ पूरे परिवार को घुमाने की बेहतरीन आदत के चलते भारत के उत्तर पूर्व के अलावा कुछ ही राज्य हैं जहाँ अपने कदम न पड़े थे, उनमें से ही एक था अपने प्रदेश यानि उत्तर प्रदेश का सीमावर्ती राज्य छत्तीसगढ़। फिलहाल 28 सितम्बर 2018 को ये वर्तमान से भूत रह गया जब हम भोपाल से सुबह सबेरे अमरकंटक एक्सप्रेस से विलासपुर पहुंचे। विलासपुर छत्तीसगढ़ राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर है पर मेरे जैसे घुमक्कड़ को इस जगह ने निराश किया। मैं तो छत्तीसगढ़ जल, जंगल और जमीन यानि प्राकृति का साथ खोज रहा था और विलासपुर के आसपास ऐसा कुछ नहीं दिखा। अधिक पूछने पर हर कोई अमरकंटक का नाम बताता पर वहाँ जाना कुछ कारणवश नहीं हो पाया।  खैर कल विलासपुर से कोरबा आना हुआ। कोरबा कोयले के लिये प्रसिद्ध है यहाँ की गेरवा खान एशिया की सबसे बड़ी कोयला खदान है। मन में आया चलो कुछ न सही तो कोयला खदान ही देखकर आयेंगे आखिर एक नया अनुभव होगा। वैसे कोयला खदान कौन देखने आता होगा, मुझे देखकर शायद खदान वालों को कोयला टूरिज्म प्रमोट करने का ख्याल आता जाये। यहाँ दक्षिण पूर्व कोल माइंस कोयला उत्पादन करती है और इसी कोयल

मंदिरों का शहर उडुपी

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इस साल जनवरी के तीसरे हफ्ते में मंगलुरू जाना हुआ। वैसे कुछ साल पहले तक अधिकतर उत्तर भारतीयों की तरह हम ऐसी किसी जगह के नाम से भी अनजान थे पर जुलाई 2012 से कारपोरेशन बैंक में नियुक्ति होने के बाद अपना मुख्यालय इसी शांत , सौम्य और खूबसूरत शहर में हो गया। जनवरी 2016 में मंगलुरु पहली बार बैंक अधिकारी यूनियन की कांफ्रेंस के चलते जाना बना और फिर दुबारा इस साल जनवरी में ही , खैर मंगलुरु की बात फिर कभी अभी पोस्ट घुमाते हैं मंदिरों के शहर उडुपी की तरफ।   हुआ यूँ कि हमारी मंगलुरु में तीन दिवसीय वर्कशॉप थी जिसके बाद हमारी वापसी की फ्लाइट रविवार को दोपहर 3 बजे की थी। शनिवार को होटल में अखबार पढ़ते हुये देखा आधा अखबार उडुपी में चल रही किसी परयाया नाम के मेले से भरा पड़ा था। हमारे बैंक की पहली शाखा भी उडुपी में ही खुली सो उडुपी जाने के बहानों में एक और बहाना जुड़ गया , बाकी पूरे देश में उडुपी नाम से फैले दक्षिण भारतीय रेस्टोरेंट्स ही उडुपी देखने की भूख बढ़ाने के लिये काफी हैं।   सो रविवार की सुबह हमने मंगलुरु से उडुपी की बस पकड़ी जिसने हमें डेढ़ घंटे में उडुपी छोड़ दिया। उधर चलने वाली

लोकशाही के दौरान राजा का बनवाया बांध

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बचपन में किसी किताब में पढ़ा था कि भारत की आजादी के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू का सबसे ज्यादा जोर नदियों पर बांध बनाने पर था वो इनको आधुनिक भारत का मंदिर कहते थे। भारत में बाढ़ और सूखे की समस्या पहले भी थी और आज भी है। आजादी के बाद बड़े बड़े बांध ही इस समस्या से निपटने के उपाय माने गये। जनता द्धारा चुनी हुई सरकार का जनता के लिये काम करना सामान्य है पर अंग्रेजों से आजादी के बाद भी एक राजा ऐसा था जिसने अपनी प्रजा के लिये पचास के दशक में दो करोड़ से भी अधिक खर्च कर मरुस्थल से निकल कर एक विशाल बांध का निर्माण कराया।  मारवाड़ (जोधपुर) के राजा उम्मेद सिंह ने जोधपुर शहर की पानी की समस्या समाप्त करने के उद्देश्य से नजदीकी पाली जिले के सुमेरपुर तहसील में जवाई नदी पर एक बांध का निर्माण कराया जिसे लोग जवाई बांध के नाम से जानते हैं।  पाली जिले में मेरा जाना मई के महीने में हुआ था तो आदतन आसपास घूमने की जगह गूगल चाचा के माध्यम से देखने पर जवाई बांध का भी जिक्र आया जो जिला मुख्यालय से लगभग नब्बे किमी दूरी पर था फिर शाखा प्रबंधक ने गर्मी का हवाला देते हुए और कम पानी

💯 की नोट पर देखकर इस कुएं की भव्यता का अन्दाजा लगाना भी मुश्किल है

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कल शाखा में बैठा था तो कैश बंद होते समय एक कर्मचारी आकर बोला सर   के नये नोट रख लीजिये आदत के अनुसार मैंने ये कहते हुये मना किया कि नये नोट का क्या करना खर्चने तो वो भी हैं और इसे आये हुये भी कई दिन हो गये। फिर भी उसने ये कहते हुये नये नोट थमा दिये कि बैंक वाले के पास नये नोट होने चाहिए दूसरे मांग लेते हैं। खैर पहली बार   की नयी नोट ध्यान से देखा बैंगनी रंग की, ऐसा लग रहा था जैसे नयी नोटों को पास करने वाला बचपन में चूरन खाने का काफी शौकीन था और उसमें मुफ्त में मिलने वाली रंग बिरंगी नोटों से बेहद प्रभावित। खैर ये नोट तो ऐसी प्रतीत होती है जैसे खट्टे वाले चूरन का रंग ही छूट गया हो। नयी नोटों के साथ एक सकारात्मक बात ये है कि इनके आगे तो गांधी जी हैं पर पीछे भारत के कुछ बड़े प्रतीक हैं। दो हजार की नोट पर चंन्द्रयान, पांच सौ के पीछे लाल किला, दो सौ के पीछे सांची स्तूप और बैंगनी वाली   की नोट के पीछे रानी की वाव। पुरुष प्रधान दुनिया में रानी की वाव लगा किसी राजा ने अपनी रानी की याद में कुछ वैसे ही बनवा दिया होगा जैसे ताजमहल मुमताज बेगम की याद में बना था अधिक से अधिक म

ताजमहल छोड़िए, भांकुरचिड़िया का किला देखकर आइए

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भांकुरचिड़िया का किला अंग्रेजी फिल्म पाइरेट्स आफ कैरेबियन का देशी रुपांतरण लगती एक भारी भरकम बजट वाली हिंदी फिल्म इस दीवाली पर रिलीज हो रही, ठग्स आफ हिंदोस्तान। बड़े सितारे, बड़ा बैनर, बड़े बजट का बड़प्पन तो देखिये फिल्म का नाम भी मौलिक न रख पाये तो फिल्म में मौलिकता ढूढ़ना निरा बेवकूफी के कुछ न होगा। फिल्म के ट्रेलर में अपने मिस्टर परफेक्शनिस्ट आमिर खान अंग्रेजी वाले लुटेरे जानी डेप के नकल करते वैसे ही महक रहे हैं जैसे देशी शराब के ठेके के सामने भीनी भीनी महक आती है जो हमारे जैसे सामान्य की सांस रोकने के लिए पर्याप्त होती है। खैर फिल्म कितनी भी घटिया हो हम इसे 200-400 करोड़ कमवा के ही मानेंगे ये पहले से तय है।  देखिये बात भांकुरचिड़िया के किले की करने के बजाय ठगों की होने लगी क्योंकि इन ठगों की फिल्म का कुछ हिस्सा इस किले में फिल्माया गया है। आपको लग रहा होगा ये कोई अनजाना या कम दिखा, सुना किला होगा पर ऐसा बिल्कुल नहीं ये भारत के सबसे चर्चित और खूबसूरत किलों में शामिल है जिसे हम मेहरानगढ़ फोर्ट के नाम से जानते हैं। ये जिस पहाड़ी पर स्थित है उसे कभी भांकु