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Showing posts from 2018

सोने जवाहरात के बाजार में खाना है तो यहाँ आइये

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सराफा बाजार का नाम सुनते ही मन में जो तस्वीर आती है उसमें आंखो में अजब सी चमक लिये महिलाओं की भारी भीड़ जो ज्वैलर्स की दुकानों में हिरनी की तरह कस्तूरी तलाशती रहती हैं, ये अलग विषय है कि जिस तरह हिरनी कस्तूरी के लिये भटकती रहती है वैसे ही ये भी हर खरीदारी के कुछ दिन बाद ही नये डिजाइन, नये चलन को लेकर भटकती रहती हैं और ये भटकाव ही सराफा बाजार की रौनक बनाये रखता है।  ऐसा नहीं है कि इस रौनक में अकेले महिलायें ही अपना योगदान देती हैं, ये 21वीं सदी है यहाँ पुरुष भी किसी क्षेत्र में महिलाओं से पीछे नहीं रहना चाहते। कई पुरुष ऐसे हैं जिनकी हाथ की आठों उंगलियों में अंगूठी शोभायमान होती है, वो तो बेचारे पैरों में बिछिया पहनने की सामाजिक बाध्यता के चलते थोड़ा पिछड़ जाते हैं। कुछ बेहद हाई क्लास सोसाइटी के लोगों को छोड़ दे तो सामान्य तौर पर भारत में हल्के होने के बाद टिश्यू के उपयोग का प्रचलन नहीं है, जब तक पानी का उपयोग न हो जाये मानसिक शांति नहीं मिलती। अब इन अंगूठीमाल लोगों को रोजाना कम से कम एक हाथ की अंगूठियां उतारने और पहनने का एक बेफिजूल का काम और मिल जाता है। वैसे फैशन में कुछ पुरुष आ

भीम जन्मभूमि - महू

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भले ही स्वंतत्र भारत में संविधान लागू 26 जनवरी 1950 को हुआ हो पर आज की ही तारीख में 26 नंवबर 1949 को संविधान स्वीकार किया गया था। वैसे तो संविधान का निर्माण मुख्य रूप से सात सदस्यों वाली ड्राफ्टिंग कमेटी ने किया था जिसमें अलादी कृष्णस्वामी, एन गोपाला स्वामी, भीमराव अंबेडकर, के.एम. मुंशी,मोहम्मद सादुल्ला, बी.एल.मिटर और डी.पी. खेतान शामिल थे पर संविधान का नाम लेते ही जिस एक व्यक्ति का चेहरा जनमानस  के  दिमाग में घूमने लगता है वो है भीमराव अंबेडकर।  14 अप्रैल 1891 को सूबेदार रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई सकपाल की 14 वीं संतान का जन्म हुआ जिसने आगे चलकर स्वंतत्र भारत को उसका संविधान देने में महती भूमिका निभाई। अंबेडकर का परिवार मूलतः महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के अंबादवे गाँव से था। अपने भाई बहनों में भीमराव एकलौते थे जो स्कूल पास करके हाईस्कूल की परीक्षा में शामिल हुये। भीमराव जाति से महार (दलित) थे और उनके पिता नाम के बाद अपनी जाति सकपाल लिखते थे। किन्तु दलितों के प्रति होने वाले भेदभाव को देखते हुये उन्होने भीमराव के नाम के आगे उनके गाँव से मिलता अंबड़ावेकर स्कूल में लिखवा दिय

बहता पानी और सफेद संगमरमर - बंदर कुदनी

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साल 2001 में शाहरुख खान और करीना कपूर की एक फिल्म आयी थी, अशोका। भारत के सबसे सफल राजाओं में शुमार अशोक पर फिल्म कर शाहरुख अपने आप को अच्छे अभिनेता की श्रेणी में लाना चाहते थे। बाकी अपने दौर के सबसे सफल स्टार तो वो थे ही। खैर अच्छी खासी फिल्म बनने के बावजूद अशोका बाक्स आफिस पर कुछ खास कमाल न कर सकी। इसी अशोका में एक बेहद लोकप्रिय गाना था, गाने के बोल थे रात का नशा अभी आंख से गया नहीं। गाने से ज्यादा खूबसूरत इस गाने की लोकेशन है। भारत के मध्य में स्थित मध्य प्रदेश के जबलपुर से 20 किमी दूरी पर है भेड़ाघाट जहाँ नर्मदा नदी ने एक तरफ गहरी घाटी बना रखी है तो दूसरी तरफ चमकते सफेद पत्थरों की घाटी जिनके बीच से नर्मदा शांत भाव से बह रही है। ये जगह मार्बल राक के नाम से प्रसिद्ध है। कभी ये घाटी बेहद सकरी हुआ करती थी, इतनी सकरी कि बंदर एक तरफ से दूसरी तरफ छलांग लगा लेते थे। बंदरों की इसी छंलागबाजी को  देखकर इस जगह का नाम बंदर कुदनी पड़ गया था। फिर समय के साथ घाटी के दोनों पाटों के बीच की जगह बढ़ती गयी और बढ़ती जगह के चलते बंदरों का आरपार कूदना मुश्किल हो गया। जगह बढ़ने के साथ सफेद संगमरमर

माँ विन्ध्यावासिनी के चरणों में अद्वैत का मुडंन

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विन्ध्यवासिनी मतलब जो विन्ध्य में रहती हो अर्थात जिसका निवास विन्ध्य में हो। लोकोक्ति के अनुसार सती के मृत शरीर को लेकर जब भगवान शंकर उद्वेलित भाव में विचरण कर रहे थे तो जहाँ जहाँ सती के अंग गिरे वो इक्यावन स्थान देवी के शक्तिपीठ के रूप में पूजित हुये। फिर सवाल उठता है कि जब अंग गिरने पर सारे शक्तिपीठ बने और उनके नाम भी उस अंग से मिलते जुलते पड़े तो विन्ध्यवासिनी देवी का नाम उस जगह पर निवास करने से क्यों पड़ा जबकि अंग का कोई निवास स्थान तो होता नहीं है। इस सवाल का जवाब भी उस प्रचलित लोकोक्ति में है जिसके अनुसार जब देवकी की आंठवी संतान के तौर पर भगवान कृष्ण ने जन्म लिया तो वासुदेव भगवान कृष्ण को गोकुल छोड़ आये और वहाँ से यशोदा की पुत्री को वापस कारावास लेकर आ गये। कंस ने जब माँ दुर्गा की अवतार कन्या का वध करना चाहा तो वह अन्तरधयान हो गयी ऐसा माना जाता है उसके पश्चात माता ने विन्ध्य के इसी क्षेत्र को अपना निवास बना लिया।  विन्ध्य क्षेत्र मूल रूप से नर्मदा नदी के उत्तर में फैली छोटी छोटी पर्वत श्रृंखला को कहा जाता है। भौगोलिक रूप से देखे तो विन्ध्य कोई एक पर्वत श्रृंखला नहीं है

यहीं रजनीश ओशो बने थे

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पता नहीं आजकल स्कूलों में बंद कमरों में ही पड़ाई क्यों कराई जाती है?? शायद अपनी मंहगी फीस को सही ठहराने के लिये प्राइवेट स्कूलों को ये करना जरूरी जान पड़ता हो, पर सरकारी स्कूलों के साथ ऐसी कौन सी बाध्यता है। अधिक बारिश वाले दिनों में वैसे भी स्कूलों में रेनी डे के नाम पर छुट्टी करने का प्रचलन है। फिर आखिर क्यों नहीं खुले आसमान के नीचे, हरियाली और ताजी हवा में पढ़ाई कराई जाती है। इतिहास गवाह रहा है हर महापुरुष को ज्ञान किसी न किसी पेड़ के नीचे ही मिला है। अब जब बच्चों को कमरों में बंद कर दिया गया है तो महापुरुष कहाँ से होंगे।  पेड़ के नीचे ज्ञान प्राप्त करने का जिक्र करने पर सबके दिमाग में बुद्ध और बोधगया का नाम कौधां होगा। बिहार के गया में एक पीपल के पेड़ के नीचे बुद्ध को ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ था, जो बाद में बोधी वृक्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ।  महावीर को भी ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति एक शाल वृक्ष के नीचे हुई थी।  खैर आज खुले में पढ़ाई की पुरातनपंथी राग का अलाप अचानक एक विद्रोही के चलते करना पड़ रहा। विद्रोही का नाम है रजनीश जिसके अनुसार 21 मार्च 1953 को जबलपुर के भंवर

कोयले की हवा वाला शहर

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दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण और सांस न ले सकने वाली हवा की चर्चा लगभग हर दो चार महीने में देशभर में टीवी पेपर से लेकर आम जनता के बीच हो ही जाती है, विशेष रूप से सर्दियों के समय हरियाणा के किसानों द्धारा खेतों में पुवाल जलाने के चलते दिल्ली हरियाणा सरकार में वार्षिक झाय झाय जरूर हो जाती है। वैसे भी शुद्ध हवा, शुद्ध पानी किसी भी सरकार के एजेंडे में ही नहीं है, और हो भी क्यों इस देश की जनता को शुद्ध हवा और शुद्ध पानी न मिलने पर सरकार से कोई शिकायत भी नहीं। अपने अपने घर में आरओ लगाकर शुद्ध पानी और एयर पयूरिफायर लगाकर हम संतुष्ट हो जाते हैं। कितना अजीब है जो चीज प्रकृति ने बिल्कुल मुफ्त में दी उसे भी बाजार हमें खरीदने पर मजबूर कर रहा है और आम आदमी बाजार को मजबूत करके खुश हो रहा।  राजधानी होने की वजह से कम से कम दिल्ली के प्रदूषण की चर्चा तो होती है पर दिल्ली से हजार किमी दूर कोरबा की हवा में फैले प्रदूषण की चर्चा करने की जरूरत भी देश को महसूस नहीं होती। कोरबा जहाँ भारत ही नहीं बल्कि एशिया की सबसे बड़ी कोयला खदान है, कोरबा जो भारत की पावर ( बिजली वाला) कैपिटल कहलाता है। कोरबा ज

अकाल की मार से बना शाही महल

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बात 1920 की है मारवाड़ राज्य में लगातार तीन साल इंद्र देव ने अपनी वक्र दृष्टि बनाये रखी, वैसे भी मारवाड़ राज्य का बड़ा हिस्सा रेगिस्तान था, सो लगातार तीन साल के सूखे की वजह से क्षेत्र में भंयकर अकाल फैल गया। अकाल के काल से त्राहि त्राहि कर रही जनता ने इससे उबरने के लिये उस समय मारवाड़ राज्य के राजा रहे उम्मेद सिंह से मदद मांगी। अब उम्मेद सिंह कोई भगवान कृष्ण तो थे नहीं जो इंद्र का टेटुआ पकड़ते और कहते पानी बरसा। वैसे भी इंद्र देवराज की उपाधि लेने के बावजूद देवताओं की लिस्ट में सबसे निर्लज्ज और निरीह पता पड़ते हैं। उम्मेद सिंह अपन जैसे ही सामान्य व्यक्ति थे जो किस्मत से राठौर राजघराने में पैदा हो गये थे।  उस समय भारत में अंग्रेजों की हुकूमत थी पर जिन राजाओं ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली, उन्हें अंग्रेजों ने उस क्षेत्र का टैक्स कलेक्शन एजेंट बनाकर राजपाट चलाने का लाईसेंस दे दिया। मारवाड़ राज्य के शासक राठौर भी ऐसे ही थे जिन्हें आप आजादी के पहले के कांग्रेसी नेताओं की तरह अकलमंद कह सकते हैं, जिन्होंने क्रांतिकारी बनकर शहीद होने की बजाय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बनकर हौल

प्रयागराज

को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ।  कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ। अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा। कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई। श्री मुख तीरथराज बड़ाई। करि प्रनामु देखत बन बागा। कहत महातम अति अनुरागा। यह सुधि पाइ प्रयाग निवासी। बटु तापस मुनि सिद्ध उदासी। भरद्वाज आश्रम सब आए। देखन दसरथ सुअन सुहाए। ऊपर तीनों गोस्वामी तुलसीदास द्धारा लिखित रामचरितमानस की चौपाई हैं, जो मूलतः वाल्मीकि रामायण से प्रेरित हैं। रामायण मैंने न देखी न पढ़ी पर रामचरितमानस का पाठ घर के माहौल के चलते कई बार किया है। इन तीनों चौपाइयों में मेरे शहर इलाहाबाद के बारे में लिखा है पर हर जगह उसका नाम प्रयाग (तीर्थराज) ही मिलेगा, इलाहाबाद का कही जिक्र तक नहीं। गोस्वामी तुलसीदास का जन्म 1511 में हुआ था और जिस मुगल बादशाह अकबर के इलाही धर्म के चलते शहर का नाम इलाहाबाद पड़ा उनका जन्म 1542 में हुआ था। इलाहाबाद से मेरा भी बड़ा जुड़ाव रहा है फिर भी प्रयागराज होने पर खुशी हो रही क्योंकि ये बदलाव नहीं बल्कि सुधार है। बाकी ये तर्क देने वाले कि जब कुछ काम नहीं करना तो नाम बदल रहे बस इतना जान ले कि प्रयागराज में डेढ़

देवपहरी जलप्रपात

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कोरबा की सतरंगा झील जैसी खूबसूरत जगह देखने के बाद मैं और विनय वहाँ से अगली खूबसूरत जगह देखने निकल गये। सतरंगा झील से करीब पंद्रह किलोमीटर के बाद पहाड़ी शुरू हो गयी। पहाड़ी की घुमावदार सड़क और दोनों तरफ दूर तक फैली हरियाली। धूप होने के बावजूद पहाड़ी और हरियाली के चलते चेहरे पर ठंडी ठंडी हवा टकरा रही थी। पहाड़ी पर बाइक घुमाने का मजा हम जैसे समतल में रहने वालों को अलग ही लगता है। खैर घूमते घामते हम देवपहरी के नजदीक पहुँच गये। बीस पचीस किलोमीटर के रास्ते में चाय की भी सिर्फ एक दुकान थी।  मेन रोड के बाद लोगों ने पूछने पर एक कच्चे रास्ते पर जाने के लिये कहा। बाहर से लोग भले न आये पर देवपहरी, कोरबा के लोगों के लिये सबसे हैपेनिंग जगह है। उसके बावजूद वहाँ तक सड़क तक का न होना प्रशासन के नकारेपन को दिखाता है। खैर इतनी बेहतरीन जगह होने के बावजूद बाहर के पर्यटक न आने का बड़ा कारण यही सब होगा।  देवपहरी जलप्रपात पर सतरंगा की तरह हम अकेले न थे बल्कि ठीक ठाक पर्यटक दिखाई दे रहे थे। बारिश का मौसम कुछ दिन पहले ही खत्म हुआ है सो ऐसी जगहों पर पानी कब अचानक कम अधिक हो जाये इसका तो भगवान ही

यहाँ आकर उदयपुर भूल जायेंगे

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पिताजी की घूमने और साथ पूरे परिवार को घुमाने की बेहतरीन आदत के चलते भारत के उत्तर पूर्व के अलावा कुछ ही राज्य हैं जहाँ अपने कदम न पड़े थे, उनमें से ही एक था अपने प्रदेश यानि उत्तर प्रदेश का सीमावर्ती राज्य छत्तीसगढ़। फिलहाल 28 सितम्बर 2018 को ये वर्तमान से भूत रह गया जब हम भोपाल से सुबह सबेरे अमरकंटक एक्सप्रेस से विलासपुर पहुंचे। विलासपुर छत्तीसगढ़ राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर है पर मेरे जैसे घुमक्कड़ को इस जगह ने निराश किया। मैं तो छत्तीसगढ़ जल, जंगल और जमीन यानि प्राकृति का साथ खोज रहा था और विलासपुर के आसपास ऐसा कुछ नहीं दिखा। अधिक पूछने पर हर कोई अमरकंटक का नाम बताता पर वहाँ जाना कुछ कारणवश नहीं हो पाया।  खैर कल विलासपुर से कोरबा आना हुआ। कोरबा कोयले के लिये प्रसिद्ध है यहाँ की गेरवा खान एशिया की सबसे बड़ी कोयला खदान है। मन में आया चलो कुछ न सही तो कोयला खदान ही देखकर आयेंगे आखिर एक नया अनुभव होगा। वैसे कोयला खदान कौन देखने आता होगा, मुझे देखकर शायद खदान वालों को कोयला टूरिज्म प्रमोट करने का ख्याल आता जाये। यहाँ दक्षिण पूर्व कोल माइंस कोयला उत्पादन करती है और इसी कोयल