सोने जवाहरात के बाजार में खाना है तो यहाँ आइये


सराफा बाजार का नाम सुनते ही मन में जो तस्वीर आती है उसमें आंखो में अजब सी चमक लिये महिलाओं की भारी भीड़ जो ज्वैलर्स की दुकानों में हिरनी की तरह कस्तूरी तलाशती रहती हैं, ये अलग विषय है कि जिस तरह हिरनी कस्तूरी के लिये भटकती रहती है वैसे ही ये भी हर खरीदारी के कुछ दिन बाद ही नये डिजाइन, नये चलन को लेकर भटकती रहती हैं और ये भटकाव ही सराफा बाजार की रौनक बनाये रखता है। ऐसा नहीं है कि इस रौनक में अकेले महिलायें ही अपना योगदान देती हैं, ये 21वीं सदी है यहाँ पुरुष भी किसी क्षेत्र में महिलाओं से पीछे नहीं रहना चाहते। कई पुरुष ऐसे हैं जिनकी हाथ की आठों उंगलियों में अंगूठी शोभायमान होती है, वो तो बेचारे पैरों में बिछिया पहनने की सामाजिक बाध्यता के चलते थोड़ा पिछड़ जाते हैं। कुछ बेहद हाई क्लास सोसाइटी के लोगों को छोड़ दे तो सामान्य तौर पर भारत में हल्के होने के बाद टिश्यू के उपयोग का प्रचलन नहीं है, जब तक पानी का उपयोग न हो जाये मानसिक शांति नहीं मिलती। अब इन अंगूठीमाल लोगों को रोजाना कम से कम एक हाथ की अंगूठियां उतारने और पहनने का एक बेफिजूल का काम और मिल जाता है। वैसे फैशन में कुछ पुरुष आजकल पायल पहनने ही लगे हैं, हो सकता है जल्द ही बिछिया का फैशन भी आ जाये। कम से कम बिछिया पहनने उतारने का रोज का चिकचिक तो नहीं रहता।वास्तव फिल्म का रघू भाई तो याद ही होगा जो अपने घर वालों को अपनी पचास तोला की सीकड़ (चेन) दिखाता है। राह चलते भी थोड़े बहुत वैसी चेन पहने नमूने दिख जाते हैं और उसी में अगर उस व्यक्ति विशेष में श्याम रंग की अधिकता रही तब तो सोने पे सुहागा, लगता है जैसे कोई भैंसा अपना खूंटा छुड़ाकर छुट्टा टहल रहा हो। खैर शौक बड़ी चीज है और ये शौक फायदा भले न पहुँचाता हो पर नशे जैसे शौक की तरह नुकसान तो नहीं ही देता। 

वैसे मैं भी कहाँ सराफा नाम में अटक गया क्योंकि ये सराफा बाजार तो मुझे भी पंसद है। मैं बात कर रहा इंदौर के सराफा बाजार जो दिनभर सोने चांदी की बिक्री कर रात को दुबारा सजधज के गुलजार होता है। वैसे तो देश के कई शहरों में फूड स्ट्रीट हैं पर इतनी रात तक गुलजार रहने वाला खाने पीने का ये एकलौता मेला है। मेला इसलिये कह रहा हूंँ क्योंकि ये रोज रात 9 बजे लगकर देर रात 2 बजे के आसपास उजड़ जाता है। दिनभर खुली रहने के बाद जब सराफे की सारे की दुकानें बन्द होती तो सड़क पर शुरू होती हैं तरह तरह के खाने पीने की दुकानें और  खाने वाले लोगों की भीड़। 

मेरा सराफा जाना इसके पहले भी दो बार हो चुका है, फिर भी इंदौर आना हुआ तो तीसरी बार आने से खुद को रोका न गया। मेरे होटल से सराफा बाजार की दूरी कुछ ढ़ाई किलोमीटर पड़ती है सो आटो लिया और पहुँच गये सराफा। सराफा जाने पर सबसे पहले रजवाड़ा का दर्शन होता है। रजवाड़ा होल्कर साम्राज्य का इंदौर का ठिकाना था जो सात मंजिला इमारत में बना महल है। रजवाड़े के बगल की सड़क से आगे बढ़ने पर इमामबाड़ा पड़ता है और उसके बाद शुरू होता है खाने के शौकीनों का मेला। 

वैसे तो भारत की ज्यादातर जनता धर्म कर्म में विश्वास रखने वाली है और लगभग सभी धर्मों में त्याग और नियंत्रण पर बहुत जोर , पर खाने पीने के मामले में हम भारतीयों में गजब की एकरुपता है जो सराफा बाजार जैसी जगहों पर रात के उजाले में अपने शिखर पर नुमाया होती है। बाजार में घुसते ही चाट, मिठाई, शिंकजा, दही बड़े, पाव भांजी, भुट्टे की कीस, डोसा, पान, चाइनीज, नारियल पानी की दुकानें अपनी तरफ खींचती हैं। क्योंकि रात को सराफा बाजार आने का मन पहले से बनाया था तो शाम में कुछ खाया न था जाहिर सी बात है पेट में छूटे दौड़ रहे थे। जब मैं पहुंचा तो दुकानें लग रही थी मेला सजा रहा था। सबसे पहले किसी चर्चित दुकान पर जाने के बजाय मैं पावभाजी के स्टाल पर रुका। 

पावभाजी से अपनी तत्कालिक भूख मिटाने के बाद मैं पहुँचा सराफा बाजार की सबसे चर्चित दुकान पर जोशी दही बड़ा हाउस। जोशी जी की दही बड़े की परमानेंट दुकान है। ब्राह्मण आदमी हैं पर पता नहीं कहाँ से पुराने जमाने में पूजा पाठ कराने की बजाय दही बड़े की दुकान लगा ली। दुकान के अंदर कुछ पेपर की कटिंग के अलावा आदि शंकराचार्य की फोटो दुकान पर लगा है। जोशी के दही बड़े से ज्यादा उनका दही बड़ा देने का तरीका मन मोह लेता है। प्रैक्टिस ऐसी कि दही बड़े को दोने सहित हवा में ऐसे उछालते हैं जैसे कोई गेंद उछाल रहा हो। दही बड़ा बेहद स्वादिष्ट लगा, मेरे द्धारा खाये गये दही बड़े में इसे दूसरे नंबर पर रखूँगा। पहले नंबर पर अभी भी मेरे अपने शहर प्रयागराज का शिव चाट कार्नर ही रहेगा। फिर भी जोशी जी का परोसने और ग्राहकों से बात का तरीका उन्हें बेस्ट बनाता है। 

जोशी के दही बड़े के बाद मेरा अगला ठिकाना रहा सांवरिया चाट हाऊस। हमारे यहाँ चाट (टिक्की) मटर के छोले के साथ खाते हैं पर सांवरिया महानुभाव मटर की बजाय काबुली चने के छोले में चाट खिलाते हैं। ऊंची दुकान के लिये कुछ अलग और बड़ा करना पड़ता है तो वो मटर से चने का विकास कर लिया। इसके अलावा ये टिक्की को पनीर की सब्जी के साथ भी खिला रहे थे, इनके द्वारा किया जा रहा ये बेमेल मेल का प्रयोग अपनी समझ के बाहर था। साधारण बिना तामझाम वाली चाट खाकर मैं आगे बढ़ा। अब पेट तो जवाब दे चुका था पर जीभ अभी भी कुछ और स्वाद लेना चाहती थी, खैर मैं दोनों की बात नकारते हुये आगे बढ़ गया ताकि आंखों को थोड़ा और ये अलग किस्म का मेला दिखा सकूँ। आगे बढ़ने पर दुकानों और उनपर सजे पकवानों की संख्या बढ़ती जा रही थी। 

मैं जिस रात सराफा पहुंचा था मौके से उस दिन भैरव अष्टमी थी और वहाँ पर स्थित भैरव मंदिर पर भगवान भैरव को उसी उपलक्ष्य में महाभोग लगाया गया था। भोग में मेवा, मिठाई तो बहुत बार देखा है लेकिन भैरव बाबा को सराफा में रहने का फायदा हुआ। भैरव बाबा को भोग में पिज्जा, बरगर, गोलगप्पे, शिकंजी, चाट, रबड़ी जैसे बहुतेरे व्यंजनों का भोग लगा था। सराफा बाजार के आखिरी में भैरव अष्टमी के ही चलते जागरण हो रहा था जिसे सुनने में हमें न कोई रुचि थी न हमने सुना। 

अब बाजार से वापस लौटने का समय हो गया था और पेट में थोड़ी बहुत जगह भी। अब सराफा से पेट में खाली जगह रखकर वापस लौटना तो नाइसांफी हो जाती सो मैं दूध, रबड़ी, मलाई वाली दुकान पर रुक गया। आखिर में रबड़ी वाला दूध पीना ही सही लगा।

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