स्टेट्यू आफ यूनिटी यात्रा

भाग 1
दिसंबर 2006 में धूम सीरीज का दूसरा भाग आया था, वो मल्टीप्लेक्स में देखी हुई मेरी पहली फिल्म थी। फिल्म में एक बड़ी सी मूर्ति दिखाई जाती है जिसमें कोई बाबा जैसा आदमी हाथ फैलाये एक पहाड़ी पर खड़ा था। उसी हाथ फैलाने के अंदाज को टीप कर शाहरुख खान लगभग एक दशक तक फिल्म इंडस्ट्री के टीपू सुल्तान बने रहे। धूम ने तो दिमाग में धूम मचा ही रखी थी पर उससे अधिक वो मूर्ति मेरे दिमाग पर हावी हो गयी थी, लगा कभी तो यहाँ जाना है। फिर बाद में पता किया तो पता चला कि मूर्ति का नाम क्राइस्ट द रीडिमर, ठिकाना अपने ब्राजील की पुरानी राजधानी रियो डी जनेरियो और हाथ हवा में फैलाये बाबा जी इशा मसीह हैं। अगर आप भारत में पैदा हुये हैं और टीनएज से गुजर रहे हैं तो हजारों मील दूर दूसरे गोलार्द्ध पर स्थित ब्राजील का नाम सुनते ही आपको दूसरे घर जैसी फीलिंग आने लगती है। 2006 तक तो विश्वकप के समय ही सही लेकिन अपना फुटबॉल देखना हो जाता था तो ब्राजील से लगाव होना स्वाभाविक प्रक्रिया थी। कितना अजीब है हर वो चीज जो आपमें बटवारा करती है वही आपको बेवजह जोड़ती भी है। ब्राजील से हम भारतीयों के लगाव की वजह हमारी चमड़ी का मिलता जुलता रंग होना रहा है फिर उसको दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेल में जीतता देख हम अपनी जीत ढूढ़ लेते थे। क्राइस्ट दी रीडिमर के दिमाग में चढ़ने की बड़ी वजह उसका जरुरत से अधिक बड़ा होना था तिसपर उसका एक टापूनुमा पहाड़ी पर होना उसे और आकर्षक बनाता है। 

प्रसिद्ध लेखक पाब्लो कोह्लो जो कि संयोगवश ब्राजील के ही वासी हैं उनकी अलकेमिस्ट नाम की बेहद प्रसिद्ध किताब है। अलकेमिस्ट उस रसायनशास्त्री को कहते हैं जो साधारण धातुओं के मिश्रण से कुछ बेहद असाधारण बना देता है। इसी किताब में एक पंक्ति थी ' अगर आप पूरी शिद्दत से कोई चीज चाहते हैं तो दुनिया की सारी ताकत आपको उससे मिलाने में लग जाती है '।  इस पंक्ति का उपयोग डायलॉग के तौर पर शाहरुख़ खान ने फराह खान निर्देशित घटिया फिल्म ओम शांति ओम में भी किया था। अब शिद्दत का तो पता नहीं पर गणतंत्र दिवस के अगले दिन जब सरदार पटेल के स्टेच्यु आफ यूनिटी को देखा तो लगा कि कहां 38 मीटर के इसा मसीह को देखने के लिये मन हिलोरे मार रहा था और कहां 182 मीटर के सरदार को देखना हो गया। 

26 जनवरी 2019
मूर्ति देखने से पहले मूर्ति देखने के लिये की गयी यात्रा भी कुछ ज्यादा ही यादगार हो गयी। आफिस के काम से मेरा मध्य प्रदेश की सीमा से लगे गुजरात के छोटा उदेपुर जिले में आना हुआ। छोटा उदेपुर गुजरात के चार-छ:  आदिवासी बहुल जिलों में से एक है। सरदार की स्टेच्यु आफ यूनिटी  छोटा उदेपुर से सटे एक अन्य आदिवासी बहुल जिले नर्मदा में पड़ती है, जिसके मुख्यालय का नाम राजपीपला है। संयोगवश आफिस के मेरे एक सहयोगी भी काम से राजपीपला आये थे। उनसे बात हुई और रविवार को स्टेच्यु आफ यूनिटी चलने का तय हुआ। अब चूंकि राजपीपला और छोटा उदेपुर के बीच की दूरी 100 किमी के लगभग है तो उन्होंने मुझे शनिवार को ही राजपीपला आने के लिए कहा ताकि रविवार की सुबह हम समय से स्टेच्यु आफ यूनिटी जा सके। शनिवार की शाम 4 बजे मैं छोटा उदेपुर बस स्टैंड इस अंदाजे के साथ पहुँचा कि पंद्रह मिनट आधे घंटे में कोई बस मिल जायेगी जो मुझे आराम से दो-ढा़ई घंटे में राजपीपला छोड़ देगी। खैर बस स्टैंड पर पूछताछ करने के बाद मेरा अंदाजा ठंड में मुंह से निकले धुंए की तरह हवा हो गया। पूछताछ पर बैठे चाचा ने बताया कि राजपीपला के लिये सीधी सिर्फ एक बस सुबह पांच बजे की है। मैंने उनसे अभी जाने के लिये पूछा तो 5:30 की नसवाड़ी नाम की जगह की बस बताई जहाँ से राजपीपला 40 किमी रह जाता था। मुझे लगा कि वहाँ से कनेक्टिविटी होगी ही तो चलने में कोई बुराई नहीं। चूंकि मेरा होटल बस स्टैंड के पास ही था तो घंटे भर वहाँ आराम करके 5:30 की बस पकड़ ली। बस कंडक्टर से पूछा कि नसवाड़ी से राजपीपला जाना तो उसने बताया कुछ न कुछ मिल जायेगा। छोटा उदेपुर से नसवाड़ी के सिंगल लेन रास्ते में दोनों तरफ पेड़ लगे हैं जो आपको जंगल जैसा अनुभव कराते हैं। करीब 7:35 पर बस वाले ने मुझे नसवाड़ी उतार दिया। नसवाड़ी में दस मिनट खड़े रहने और इधर उधर पूछने के बाद समझ आया कि यहाँ से राजपीपला जाने के लिये शाम के बाद कोई साधन नहीं मिलेगा। इस दौरान सड़क से गुजर रहे एक युवक से जब राजपीपला जाने के लिये साधन के लिये पूछा तो उसने बताया कि उसे भी राजपीपला जाना है, ये सुनकर लगा चलो एक से भले दो। दूसरा युवक मेरी तरह उस जगह से अनजान था ये स्वाभाविक था खैर बातचीत में पता लगा वो कर्नाटक से था और यहाँ कुछ मोबाईल के नेटवर्क से संबंधित काम करता है। रास्ते में लोगों ने तीन किलोमीटर आगे हाइवे से साधन मिलने की बात कही तो मैंने बाइक सवार से लिफ्ट लेना उचित समझा। हाइवे पर उतारने के बाद बाइक वाले ने कहाँ किसी डंपर/ ट्रक को हाथ दे दीजिये वहीं आपको राजपीपला छोड़ देगा। हवा से लेकर पानी में कई प्रकार के साधन का अनुभव लेने के बावजूद आजतक ट्रक जैसे साधन से यात्रा न की थी तो लगा चलो एक नया अनुभव और सही, वैसे कोई दूसरा उपाय भी नहीं था। कई अनुभव होते मजबूरी में हैं पर बाद में यादगार हो जाते हैं ये भी कुछ वैसा ही होते होते रह गया। मैं मोटरसाइकिल से उतर कर खड़ा ही हुआ था कि एक बोलेरो आती दिखाई दी, अपन ने हाथ दिया और गाड़ी रुक गयी। गाड़ी में ड्राइवर के अलावा मियां, बीबी और बच्चे दिखे तो लगा अब ट्रक को ही हाथ दिखाना पड़ेगा। खैर गाड़ी मालिक को ये मंजूर नहीं था और उसने हमें पीछे बैठने के लिये कह दिया। भारत के अन्य भाग में रात के समय परिवार के साथ होने के बावजूद दो युवकों को लिफ्ट देना लगभग असंभव सा है पर गुजरात शायद इसीलिये कुछ अलग है। संयोग से लिफ्ट देने वाले सज्जन उसी केवड़िया गाँव के थे जहाँ स्टेच्यु आफ यूनिटी है और वहाँ बनी टेंट सिटी में बिजली का ठेका उनका ही था तो लिफ्ट के साथ मुफ्त में वहाँ की जानकारी भी मिलती रही। आखिर 25 किमी की यात्रा के बाद केवड़िया का मोड़ आ गया तो उन्होंने हमें विदा किया। अभी भी हमें 15 किमी की दूरी तय करनी थी। दिक्कत ये थी कि जहाँ हम खड़े थे वहाँ गाड़ियां इतनी तेजी से गुजर रही थी कि हाथ देने पर भी कोई रुक नहीं रहा था। करीब दस मिनट बाद एक बाइक वाला रुका जिसे सिर्फ 3 किमी आगे के गाँव में जाना था वैसे उसके कुछ बोलने के पहले मैं उसकी बाइक पर बैठ चुका था। उस लड़के ने हमें अपने गाँव से आगे तक छोड़ा और एक बेहद ओवरलोडेड मैजिक पकड़ा दी। फिर मैजिक पर खड़े होकर बढ़िया ठंडी हवा खाते हुये हम आखिरकार राजपीपला पहुँच ही गये। शायद मैजिक से भी मेरी ये पहली ही यात्रा थी और खड़े होकर तो निश्चित तौर पर। रात 9:30 बजे राजपीपला में अपने मित्र के होटल पहुँच गया और अगले दिन की यात्रा को देखते हुये हम 11 बजे सो गये। 

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