देवपहरी जलप्रपात


कोरबा की सतरंगा झील जैसी खूबसूरत जगह देखने के बाद मैं और विनय वहाँ से अगली खूबसूरत जगह देखने निकल गये। सतरंगा झील से करीब पंद्रह किलोमीटर के बाद पहाड़ी शुरू हो गयी। पहाड़ी की घुमावदार सड़क और दोनों तरफ दूर तक फैली हरियाली। धूप होने के बावजूद पहाड़ी और हरियाली के चलते चेहरे पर ठंडी ठंडी हवा टकरा रही थी। पहाड़ी पर बाइक घुमाने का मजा हम जैसे समतल में रहने वालों को अलग ही लगता है। खैर घूमते घामते हम देवपहरी के नजदीक पहुँच गये। बीस पचीस किलोमीटर के रास्ते में चाय की भी सिर्फ एक दुकान थी। 

मेन रोड के बाद लोगों ने पूछने पर एक कच्चे रास्ते पर जाने के लिये कहा। बाहर से लोग भले न आये पर देवपहरी, कोरबा के लोगों के लिये सबसे हैपेनिंग जगह है। उसके बावजूद वहाँ तक सड़क तक का न होना प्रशासन के नकारेपन को दिखाता है। खैर इतनी बेहतरीन जगह होने के बावजूद बाहर के पर्यटक न आने का बड़ा कारण यही सब होगा। 

देवपहरी जलप्रपात पर सतरंगा की तरह हम अकेले न थे बल्कि ठीक ठाक पर्यटक दिखाई दे रहे थे। बारिश का मौसम कुछ दिन पहले ही खत्म हुआ है सो ऐसी जगहों पर पानी कब अचानक कम अधिक हो जाये इसका तो भगवान ही मालिक है। मिजाज से एडवेंचर प्रेमी हूँ सो मुख्यधारा के काफी नजदीक तक गया लेकिन इस जगह पर आकर रुक गया जहाँ से ये फोटो शुरू हुई है। वैसे इस जगह तक भी बाकी पर्यटक नहीं जा रहे थे। खैर फोटो डालने की असली वजह गमछा डाले बैठे दिख रहे बुढ़ऊ हैं। वो वहां बैठकर मछली मार रहे अब इतनी तेज धारा में मछली कैसे फसती है ये तो मछली मारन के अनुभवी लोग बता पायेंगे। वैसे कुछ दिन पहले ही बापू के बर्थडे के दिन दिल्ली यूपी बार्डर पर किसान पुलिस भिड़ंत के दौरान एक दादा की अकेले कई पुलिस वालों से मोर्चा लेते तस्वीर वायरल हुई थी अब इनको देखकर लग रहा सारा जोश तो बुढ़ऊ लोगों में ही है हमारे पीढ़ी तो नाम की ही युवा रह गयी है।

एक तरफ जलप्रपात पर तेज वेग से गिरता पानी रोमांचित कर रहा था तो दूसरी तरफ पेट में भी भूख रोमांचित कर रही थी। मैंने गिरते पानी पर ही ध्यान लगाने की कोशिश की वैसे भी खाने पीने की दुकान न होने की वजह से और कोई चारा भी न था। 

वहाँ से निकलने पर अब सीधे पेट पूजा की याद आयी तो रास्ते में पड़ी एकमात्र चाय नाश्ते की दुकान याद आयी। वहाँ पहुँच कर हमने बड़ा खाया जिसके साथ मटर के छोले थे और चाय पी। खास बात दुकान बेहद साफ सुथरी थी। सड़क किनारे खपड़ैल छा कर बनायी गयी दुकान के सामने पेड़ है जिसे काटने की बजाय खपड़ैल को उतने हिस्से में खुला छोड़ दिया। बैठने के लिये मिट्टी के चबूतरे थे और टेबल के लिये पेड़ के तने पर फटटे लगाये थे। यही अगर शहर के किसी रेस्तरां में होता तो इथीनिक रेस्तरां के नाम पर लोग भीड़ लगाते। खाने के पहले टेबल की एक फोटो ली और बाहर की फोटो निकलते वक्त लेने की सोची। जैसा कि सोचा हुआ अधिकतर नहीं होता बाहर निकलने पर फोटो लेना भूल गया। 

वहा से मोटरसाइकिल दबाते हुए हम सीधे कोरबा का रुख किये। रास्ते में बालको की फैक्ट्री पड़ी जो सरकारी से अब अनिल अग्रवाल के वेदांत ग्रुप की हो गयी है।

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