मंदिरों का शहर उडुपी


इस साल जनवरी के तीसरे हफ्ते में मंगलुरू जाना हुआ। वैसे कुछ साल पहले तक अधिकतर उत्तर भारतीयों की तरह हम ऐसी किसी जगह के नाम से भी अनजान थे पर जुलाई 2012 से कारपोरेशन बैंक में नियुक्ति होने के बाद अपना मुख्यालय इसी शांत, सौम्य और खूबसूरत शहर में हो गया। जनवरी 2016 में मंगलुरु पहली बार बैंक अधिकारी यूनियन की कांफ्रेंस के चलते जाना बना और फिर दुबारा इस साल जनवरी में ही, खैर मंगलुरु की बात फिर कभी अभी पोस्ट घुमाते हैं मंदिरों के शहर उडुपी की तरफ। 

हुआ यूँ कि हमारी मंगलुरु में तीन दिवसीय वर्कशॉप थी जिसके बाद हमारी वापसी की फ्लाइट रविवार को दोपहर 3 बजे की थी। शनिवार को होटल में अखबार पढ़ते हुये देखा आधा अखबार उडुपी में चल रही किसी परयाया नाम के मेले से भरा पड़ा था। हमारे बैंक की पहली शाखा भी उडुपी में ही खुली सो उडुपी जाने के बहानों में एक और बहाना जुड़ गया, बाकी पूरे देश में उडुपी नाम से फैले दक्षिण भारतीय रेस्टोरेंट्स ही उडुपी देखने की भूख बढ़ाने के लिये काफी हैं। 

सो रविवार की सुबह हमने मंगलुरु से उडुपी की बस पकड़ी जिसने हमें डेढ़ घंटे में उडुपी छोड़ दिया। उधर चलने वाली बसों में शीशे नहीं होते वजह अधिकतर गर्मी होना। खैर उडुपी पहुँच कर हमने सीधे श्रीकृष्ण मठ का रुख किया रास्ते भर सड़क पर परयाया के लिये की गयी सजावट दिख रही थी। वहाँ पहुंचने पर पता लगा परयाया दरअसल कोई मेला नहीं बल्कि रथयात्रा है। 

श्रीकृष्ण मठ के बाहर ही तीन रथ अलग अलग खड़े दिखे, क्योंकि पुरी की रथयात्रा देखने का अवसर अभी तक नहीं मिला  सो ये कहने में कोई संकोच नहीं कि ऐसे खूबसूरत रथ इसके पहले नहीं देखे थे। 

श्रीकृष्ण मठ के गेट के सामने बने चबूतरे पर करीब बीस पचीस महिलाओं का समूह शास्त्रीय संगीत में भजन गा रही थीजो किसी भी सामान्य मनुष्य में भक्ति भाव जाग्रत करने के लिये काफी था। आगे बढ़ने पर पता लगा कि दर्शन की लाईन पीछे कुंड की तरफ से लगी है। रथयात्रा के दिन होने के बावजूद लाईन अधिक लंबी न थी वैसे भी दक्षिण भारत के मंदिरों में कितनी भी भीड़ हो उत्तर भारत की तरह धक्का मुक्की की स्थिति कम ही आती है। 


श्रीकृष्ण मठ का संचालन आठ मठों के द्धारा किया जाता है जिनको ये जिम्मेदारी हर दो साल बाद क्रम में मिलती है उसी के उपलक्ष्य में हर दो साल पर परयाया (रथयात्रा) का आयोजन होता है। 

लाइन में हमें कुंड के बगल होते हुये जाना था। कुंड के बीचों बीच एक छतरीनुमा इमारत बनी थी जिसकी वजह से कुंड और बेहतर दिख रहा था। लाइन में लगे हुये ही बोलते बतियाते मैंने अपने साथियों से कुंड में चलने के लिये कहा जो मेरे आगे चल रहे लड़के ने सुन लिया। अब बोलने की बारी लड़के की थी जिसके अनुसार कुंड में केवल ब्राह्मण ही जा सकते हैं। मैंने पूछा ये पता कैसे करते हैं कि सामने वाला ब्राह्मण है या नहीं तो जवाब मिला जनेऊ देखकर। उसे कौन बताये कि हम ठहरे तो ब्राह्मण पर जनेऊ होने के हफ्ते दस दिन में ही उतार दिया था। खैर मेरी इस बात के बाद कुंड में जाने की इच्छा और बढ़ गयी।  फिर सिर्फ जानकारी के लिये उसकी जाति पूछी तो उसने खुद को पिछड़ी जाति का बताया और घर बताया भारत के स्काटलैंड कुर्ग में। मैंने उससे कहा जब तुमको कुंड में जाने नहीं देते तो तुम ऐसी जगह आते क्यों हो तो उसने कहा कुंड में जाकर क्या करना।

मंदिर में जाने के पहले ऊपर के कपड़े वगैरह उतार दिये। मंदिर में अंदर भगवान के दर्शन एक खिड़की से कराये जाते हैं जहाँ से कमजोर नेत्र शक्ति वाले को कुछ न दिखाई देने की गारंटी है। खैर हम काफी देर ताका झाकी करके दर्शन करने में सफल रहे पर ये खिड़की लगाना हमें जंचा बिल्कुल नहीं। मंदिर के अंदर ही खाने पीने का समान बनने के बावजूद सफाई काबिले तारीफ थी। 


दर्शन के बाद अब मुझे कुंड में जाना था पर साथियों ने इसमें साथ नहीं दिया सो मैं कुंड की तरफ बढ़ गया। रास्ते में न किसी ने रोका न जाति पूछी न जनेऊ चेक किया तब याद आया मार्केटिंग में वर्ड्स आफ माऊथ प्रचार का सबसे कारगर साधन है। वर्ड्स आफ माऊथ ऐसी भ्रांतियां फैलाने में भी काम आती हैं। 





श्रीकृष्ण मठ से बाहर निकल कर दुकानों में घरों और मंदिरों में सजावट के समान देखे और हमेशा की तरह खरीदने की गलती न करते हुये फोटो खीच ली। 
  
मंदिर के बाद नजदीक ही स्थित अपने बैंक की पहली शाखा का रुख किया जो रविवार के चलते बंद थी। वहाँ एक म्यूजियम भी है जो बैंक के द्धारा ही संचालित है पर वो भी बंद मिला। उसके बाद एक रेस्तरां में पहुँच कर पेट पूजा की गयी फिर मंगलुरु वापसी। 

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